मिर्ज़ापुर : पुरातत्व नगरी के प्राकृतिक धरोहर हो रहे बर्बाद

असलम खान की रिपोर्ट :

मिर्जापुर : अहरौरा में प्राकृतिक धरोहर की भरमार है किंतु इनके रख रखाव में कोताही बरते जाने के कारण चीजे बर्बाद हो रही हैं। सुमेघा का किला, राजा बाबा पहाड़ी जैसे मनोरम जगह भी बिना रखरखाव के तहस नहस हो रहे हैं।अहरौरा में अशोक शिला और स्तंभ की खोज 1961 ई. में प्रोफ़ेसर गो.रा. शर्मा ने की थी। मिराशी ने इसे सम्पादित किया था।उत्तर प्रदेश से मिलने वाला यह प्रथम लघु शिलालेख था।यह लेख सहसराम व बैराठ के लघु शिलालेख से मिलता जुलता है, सिवाय अंतिम पंक्ति के।स्तंभ वाली जगह के आस पास झाड़ झंकार इतने है कि दूर से देखने ये स्थल बेकार दिखता है।यह लेख काफ़ी घिसा-पिटा एवं अस्पष्ट है।किन्तु खुले आसमान के नीचे होने से स्तम्भ पर खुरदे हुवे शब्द भी धीरे धीरे मिट रहे हैं।

अहरौरा नगर से पांच किलोमीटर दूर अति प्राचीन लखनिया दरी सिर्फ पर्यटन स्थल के साथ ऐतिहासिक रूप से समृद्ध है। बरसात के मौसम में बड़ी संख्या में सैलानी यहां जलप्रपात और प्रकृति के मनोहारी दृश्य का आनंद उठाने आते हैं। अगर यहां सैलानियों को सुविधाएं मुहैया कराई जाए तो यहां सैलानियों की संख्या बढ़ेगी। यह स्थल उपेक्षा का शिकार है। यहां न तो सैलानियों के बैठने के लिए चबूतरे बने हैं और न ही बारिश से बचाव के लिए शेड लगे हैं। झरने में स्नान करने के बाद महिलाओं के कपड़े बदलने के लिए चेंजिंग रूम नहीं है।

तीन तरफ से पहाड़ियों से घिरे लखनिया दरी का दृश्य बरसात में काफी मनोरम हो जाता है। पहाड़ों पर पेड़ों की हरियाली, जल-प्रपात और कल-कल कर गिरते झरने लोगों को आकर्षित करते हैं। अहरौरा नगर से आठ किलोमीटर दक्षिण स्थित लखनिया दरी जलप्रपात स्थल के विकास की असीम संभावनाएं हैं लेकिन इस दिशा में कुछ खास नहीं किया गया। 2012 में सपा के शासन में पर्यटन मंत्री रहे ओमप्रकाश सिंह लखनिया दरी आए थे। उन्होंने लखनिया दरी से चूनादरी जल-प्रपात तक रोप-वे बनवाने की घोषणा की थी लेकिन विकास के नाम पर कुछ नहीं किया गया। यहां दूर दराज से लोग पिकनिक मनाने आते हैं लेकिन उनके बैठने के लिए चबूतरे, बारिश से बचाव के लिए शेड, कपड़े बदलने के लिए चेंजिंग रूम नहीं होने से खास तौर से महिला सैलानी खुद को असहज महसूस करती हैं।

सन 1827 में ब्रिटिश हुकूमत के समय अहरौरा जलाशय में तीन तखवा पुल बनाया गया था जिससे होकर लोग सोनभद्र जाते थे। उस दौरान लखनिया दरी जल-प्रपात जाने के लिए कोई मार्ग नहीं था। लोग जंगल एवं पहाड़ों से होकर होकर जाते थे। प्रथम पंचवर्षीय योजना में 1951 से 56 के मध्य वाराणसी से सोनभद्र जाने के लिए सड़क का निर्माण कराया गया था। इसके बाद जल-प्रपात पर आने जाने का रास्ता सुगम हुआ। डीएफओ राजेश चौधरी का कहना है कि
लखनिया दरी के विकास की योजना पर काम हो रहा है। इसको लेकर शासन गंभीर है। जल्द ही कुछ नए कार्य किए जाएंगे।

सैकड़ों वर्ष पुराना है जलप्रपात का इतिहास

लखनिया दरी जल-प्रपात का इतिहास सैकड़ों साल पुराना है। जल-प्रपात के पास पहाड़ की कंदराओं में बने भित्ति चित्र से इसकी प्राचीनता का पता चलता है। क्षेत्रीय लोगों का कहना है कि सैकड़ों वर्ष पूर्व लखनिया दरी पर लाव-लश्कर के साथ एक राजा अपनी रानी को सैर कराने लाए थे। उस दौरान बाढ़ के चलते राजा, सैनिक और हाथी-घोड़े बह गए जबकि पहाड़ की कंदराओं में छिपने के कारण रानी अकेली बची थी। रानी को जब लगा कि वह भी नहीं बचेंगी तो उन्होंने अपने खून से पहाड़ के चट्टान पर राजा, सैनिक, हाथी, घोड़ा की तस्वीरें उकेर दीं, जिससे पता चल सके कि बाढ़ में फंसने की वजह से कोई जीवित बच नहीं सका है। भित्ति चित्र को देखकर पुरातत्व विभाग के अधिकारी भी इसे मानव के खून से बना हुआ बताते हैं।

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