दीपक दुआ
‘शुभ मंगल सावधान’ का एक सीन देखिए। लड़की की शादी से ठीक पहले उसकी मां उसे समझा रही है कि औरत का शरीर बंद गुफा की तरह होता है। यह गुफा सिर्फ सुहागरात को खुलती है और वह भी सिर्फ अलीबाबा के लिए। लड़की सवाल पूछती है-और अगर अलीबाबा गुफा तक पहुंचे ही न तो…?
एक और सीन देखिए। शादी वाले घर में शादी से एक दिन पहले लड़का-लड़की सबके सामने एक कमरे में चले जाते हैं और अब बाहर बैठे घराती-बाराती कयास लगा रहे हैं-होगा कि नहीं होगा। वही मां अब कह रही है-कोई नहीं जी, कल भी तो होना ही है। लड़की का बाप कल तक ट्रेलर में उछल रहा था कि शादी से पहले उसकी बेटी को छुआ कैसे और आज वही बाहर खड़ा हवन कर रहा है कि उसकी बेटी के साथ शादी से पहले ‘कुछ’ हो ही जाए।
मुमकिन है कि पहले वाले सीन पर आप हंसे क्योंकि यह आपको गुदगुदाता है। लगता है कि एक जवान लड़की की मां ‘इस’ विषय पर उसे इसी तरह से ही समझा सकती है। लेकिन क्या आप दूसरा सीन हजम कर पाएंगे? लड़का-लड़की कमरे में बंद हैं और बाहर उनके मां-बाप दावे कर रहे हैं कि आज जरूर ‘कुछ’ होगा, इसे लेकर नोक-झोंक हो रही है, यहां तक कि सट्टा भी लगाया जा रहा है।
इस फिल्म के साथ यही दिक्कत है कि यह कहना कुछ चाहती है मगर कह कुछ और रही है। दिखाना चाहती है कि हमारे मध्यवर्गीय परिवार अब इतना खुल चुके हैं कि होने वाले दामाद की नपुंसकता जैसे ‘वर्जित’ विषय पर आपस में बात कर रहे हैं। लेकिन दिखा रही है कि इन लोगों को बात करने की न तो समझ है और न ही ये लोग अपना पोंगापन छोड़ने को तैयार हैं।
निर्देशक आर..एस. प्रसन्ना ने अपनी ही एक तमिल फिल्म का यह रीमेक बनाया है जिसे हिन्दी पट्टी के माहौल में ढालने के लिए लेखक हितेश केवलया की मेहनत दिखती है। उत्तर भारत की जुबान पर किया गया काम सराहनीय है। ‘यहां मेरी गरारी अटक गई है, तुझे अपनी पड़ी है’ किस्म के संवाद गुदगुदाते हैं। लेकिन दोनों ही परिवार पंजाबी न होने के बावजूद पंजाबी लफ्जों का इस्तेमाल क्यों कर रहे हैं? दरअसल स्थानीय लोकेशंस, रोचक किरदारों, परिवेश आदि से इसे ज़मीनी फ्लेवर तो दे दिया गया जो बाहरी आवरण के तौर पर आकर्षक लगता भी है लेकिन जब बात कंटैंट और कहानी की गहराई की होती है तो फिल्म का खोखलापन सामने आने में देर नहीं लगती।
आयुष्मान खुराना इसी किस्म के किरदारों में जंचते हैं। भूमि पेडनेकर कमाल की अदाकारा हैं जो अपने रोल को पहले ही सीन से कस कर पकड़ लेती हैं। लेकिन उनकी अब तक तीन फिल्में आईं और तीनों ही में लगभग एक-सा किरदार…. बंध मत जाना भूमि। सहयोगी भूमिकाओं में आए नीरज सूद, सीमा भार्गव, बृजेंद्र काला, अंशुल चौहान जैसे कलाकार समां बांधते हैं। म्यूजिक फिल्म के मिजाज के अनुकूल है।
सिर्फ पौने दो घंटे की होने के बावजूद अगर फिल्म में ढेरों गैरजरूरी चीजें हों तो साफ है कि काठ की हांडी चढ़ाई जा रही है। जहां भावनाओं और ठहराव की जरूरत थी वहीं यह बिखर जाती है। सिर्फ गुदगुदाना ही मकसद था तो थोड़ा और खुल कर इसे एडल्ट- कॉमेडी में बदलना ज्यादा सही रहता। फिलहाल तो यह फिल्म एक ऐसी गाड़ी है जो जरा-सी असावधानी के चलते पटरी से उतर चुकी है।
अपनी रेटिंग-दो स्टार
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज से घुमक्कड़। अपनी वेबसाइट ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
नोट-: यह खबर सबसे पहले www.cineyatra.com पर प्रकाशित हो चुकी है