विलुप्त होने के कगार पर पहुंच गया है गोंड़ऊ नृत्‍य

संतोष कुमार शर्मा की रिपोर्ट

बलिया। जैसे -जैसे अपने देश में पाश्चात्य सभ्यता का आगमन हो रहा है, वैसे-वैसे देश के परंपराएं या तो विकृत होती जा रही है या फिर समाप्ति की ओर बढ़ रही है। अगर हम अपनी परंपरा की बात करें तो अधिकांश परंपराए खोने के कगार पर पहुंच गई हैं। आज हमारी नई पीढ़ी पाश्चात्य गीतों पर झूमते नजर आ रही हैं। इसके उलट पारंपरिक गीतों, संगीतों व नृत्यों का चलन बंद सा हो गया है। विडंबना ही है कि सरकार भारतीय परंपराओं को बचाने के लिए कोई ठोस पहल नहीं कर रही है। इसी में से एक है गोंड़ऊ नृत्‍य, जो लगभग बंद सा हो गया है किंतु कहीं -कहीं देखने को मिल जाता है। गोंड़ऊ नृत्‍य में वाद्य के रूप में प्रयोग करने वाले हुर्का की जो आवाज आती है, वैसी आवाज शायद किसी भी विदेशी वाद्य यंत्र से नहीं आती है। गोंड़ऊ नृत्‍य में काम करने वाले कलाकार अपनी बातों को जिस प्रकार दर्शकों के सामने रखते थे, शायद उस ढंग से आज के आर्केस्ट्रा के कलाकार भी नहीं रख पाएंगे। दर्शक उनकी बातों को सुनकर लोटपोट हो जाते थे। इसे संरक्षित करने के लिए किसी भी स्तर से प्रयास नहीं किए जा रहे हैं। गोंड़ऊ नृत्‍य के कलाकार अपनी प्रस्तुति में जो भी प्रसंग उठाते थे, उसे सुनकर दर्शक ठहाका लगाने को मजबूर हो जाते थे। अब गोंड़ऊ नृत्‍य का स्थान आम तौर पर आर्केस्ट्रा ने ले लिया है। जिसे आज की पीढ़ी काफी पसंद करती है।

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