लखनऊ जुलाई 8, 2018 टाईम्स आफ इंडिया में एक चर्चित अर्थशास्त्री का लेख कहता है कि केंद्र सरकार ने खरीफ फसलों का समर्थन मूल्य बढ़ा कर गलती की है क्योंकि यह अंतर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा मांग-आपूर्ति के नियमों के विरूद्ध है। लेख आगे कहता है कि ‘यूरोपीय आर्थिक समुदाय’ ने एक बार फसलों के मूल्य को बढ़ा कर गलती की थी और बाद में उसे इसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ी। यूरोप और भारत के किसानों की तुलना अपने आप में सही नहीं है। भारत का किसान अपनी फसलों का बाजार दाम भी नहीं पाता है जबकि यूरोप के किसान कृषि उपज और बाजार के लिए भी भारी स्तर पर अपनी सरकारों द्वारा सब्सिडी पाते हैं। ए 2, ए 2+एफएल, सी 2 की तकनीकी व्याख्या में जाने की जगह सरल रूप से समझे कि किसी माल की कीमत तय करने के लिए उसमें लगी श्रम शक्ति, पूंजी ब्याज, जमीन रेंट तथा अन्य संसाधनों की कीमत जुड़ती है। लेकिन यहां के किसानों की फसलों की कीमत तय करने में सरकारें जमीन का रेंट और पूंजी ब्याज को नहीं जोड़ती हैं। चाहें किसानों के भूमि अधिग्रहण का मामला हो या उनकी फसलों और अन्य उत्पादों की कीमत तय करने का मामला हो उसकी कीमत बाजार के नियमों के अनुसार नहीं तय की जाती है। उदारीकरण के इस दौर में भी जहां विदेशी कृषि उत्पाद पर लगे मात्रात्मक प्रतिबंध हटा दिये गये हैं, सीमा शुल्क घटा दिया गया है वहीं अभी भी यहां के ढेर सारे कृषि उत्पादों के निर्यात पर केंद्र सरकार ने प्रतिबंध लगा रखा है। उदारीकरण के ये दो नमूने यहां देखने को मिलते है। ग्रामीण क्षेत्र में निवेश घटता जा रहा है जबकि अभी भी भारत का अधिकांश किसान सिंचाई के लिए मानसून पर निर्भर है। कुछ अर्थशास्त्री तो यह भी तर्क देते हैं कि खेती और निवेश पैसे की बर्बादी है। क्योंकि कृषि का जीडीपी में हिस्सा अब घट कर लगभग 17 प्रतिशत रह गया है और अब कृषि विकास दर 2 प्रतिशत से अधिक भी हो जाये तो जीडीपी में खास बढ़ोतरी नहीं होगी। राजकोषीय घाटा को लेकर वे बराबर चिंतित रहते हैं और उसे 3 प्रतिशत से ऊपर न बढ़ने देने के लिए तर्क देते हैं लेकिन कारपोरेट घरानों द्वारा बैंक परिसंम्पतियों की गई लूट और राजस्व वसूली में दी गई लाखों करोड़ की छूट पर चुप्पी साधे रहते हैं। जबकि वित्तीय घाटा न बढ़ने देने के इस तर्क से वे कृषि, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे मद पर कम हो रहे निवेश को सही ठहराते हैं। ऐसे अर्थशास्त्री यह ध्यान नहीं देते हैं कि कृषि क्षेत्र में विकास के बगैर मैन्यूफैक्चरिंग व सेवा क्षेत्र में विकास दर टिका पाना संभव नहीं होगा। किसानों की बढ़ रही आत्महत्याओें को भी सरकारी तंत्र गंभीरता से नहीं लेता है। कुछ विकास के दौर में ऐसा होना स्वाभाविक मानते हैं और यूरोप के किसानों की खेती से बेदखली का उदाहरण देते हैं। लेकिन यूरोप के किसानों के बारे में उनकी यह गलत समझदारी है। यूरोप के किसानों के पास यह विकल्प था कि वे वहां विकसित हो रहे उद्योगों में जायें या अपने देश के उपनिवेशों में जाकर बस जायें। हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि कृषि क्षेत्र के उपेक्षा के बावजूद अभी भी जीडीपी बनाने में इसकी भूमिका है और लगभग 50-55 प्रतिशत श्रम शक्ति कृषि क्षेत्र में लगी हुई है।
किसान संकट ने राष्ट्रीय संकट का स्वरूप ले लिया है। लेकिन कांग्रेस की मनमोहन सरकार से लेकर मोदी सरकार ने किसानों के फसलों के समर्थन मूल्य, उसकी खरीद और समय से भुगतान के लिए भी कोई ठोस पहल नहीं ली है यहां तक कि फसलों की खरीद के लिए कोई राष्ट्रीय कानून भी नहीं बनाया गया है। मोदी राज में राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो ने 3 साल से किसानों की आत्महत्याओं के आकड़े भी प्रकाशित करना बंद कर दिया है। लोकतांत्रिक संस्थाओं को नष्ट करना मोदी राज का स्वाभाव है। बताया यह जा रहा है कि शायद अब अपराध रिकार्ड ब्यूरो किसानों की आत्म हत्याओं का आकड़ा ही न प्रकाशित करे। बहरहाल किसान संकट बुनियादी और ढ़ाचागत है और उदारीकरण के इस दौर में यह और गहरा तथा जानलेवा हो गया है। किसानों का संकट बुनियादी इन अर्थों में भी है कि हमारा कृषि माडल ही समस्याग्रस्त है। कुछ लोग कहते हैं कि कृषि विकास का किसान केंद्रित जो अमरीकी माडल है उसके बरक्स मूलतः भूस्वामी केंद्रित प्रशियाई माडल को कृषि विकास के लिए यहां के शासक वर्ग ने चुना है जिसकी वजह से देश में भूमि सुधार कार्यक्रम ईमानदारी से लागू नहीं हुआ। आज भी लगभग 30 प्रतिशत ग्रामीण परिवारों के पास घर की जमीन को छोड़कर खेती के लिए कोई जमीन नहीं है। एनएसएसओ का सर्वेक्षण बताता है कि देश में लगभग 10 करोड़ जोते हैं। जिसमें 7 करोड़ जोतों का आकार 2.5 एकड़ से भी कम है। आम तौर पर ग्रामीण आबादी को किसान के रूप में देखने का प्रचलन है। किसानों का राष्ट्रीय आयोग एनसीएफ जिसे स्वामीन
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