लड़की शादी के बाद ससुराल आई तो देखा कि घर में शौचालय नहीं है और उसे भी मौहल्ले की दूसरी औरतों के साथ लोटा उठा कर खेतों में जाना पड़ेगा। नाराज होकर वह मायके लौट गई और इधर लड़के ने उसकी खातिर घर-गांव में शौचालय लाने की कवायद शुरू कर दी।
ऐसी ही कुछ एक सच्ची घटनाओं से प्रेरित इस फिल्म ‘टॉयलेट-एक प्रेम कथा’ की यह कहानी हमें पहले से ही पता थी। तो फिर इस फिल्म को क्यों देखा जाए? क्या सिर्फ सरकार के ‘घर घर शौचालय’ अभियान के लिए? या फिर लड़के-लड़की की प्रेमकथा के लिए? या शौचालय बनवाने की उस लड़के की कोशिशों को सफल होता देखने के लिए? जवाब है-इन तीनों के लिए!
सरकारी नीतियों, वादों, इरादों को हमारे फिल्मकार पहले भी मनोरंजन प्रधान सिनेमा की शक्ल में पर्दे पर लाते रहे हैं। मकसद यही रहा है कि जब बात विचारों और नारों से उठ कर मनोरंजन के रैपर में लपेट कर आम जनता तक पहुंचाई जाती है तो उसका असर गहरा और देर तक होता है। राज कपूर ने अपनी कई फिल्मों के जरिए नेहरू के समाजवाद के सपने को परोसा। मनोज कुमार को तो बाकायदा तब के प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने अपने ‘जय जवान जय किसान’ के नारे पर फिल्म बनाने को कहा था और ‘उपकार’ बन कर सामने आई थी। अब अगर अक्षय एंड पार्टी घर-घर में शौचालय बनाने की सीख देती फिल्म लाई है तो हल्ला क्यों? क्या सिर्फ इसलिए कि हम इस विचार को रखने वाली पार्टी के समर्थक नहीं हैं? तो भिया, कल से खेतों में जाना शुरू कर दो!
‘खाते समय शौच का जिक्र भी हो जाए तो निवाला गले से न उतरे’ या ‘जिस आंगन में तुलसी की पूजा हो वहां शौचालय कैसे बनवा दें’ जैसी सोच वाले समाज में ऐसे मुद्दे पर किसी बड़े बैनर से बड़े बजट वाली फिल्म का आना ही अपने-आप में सुखद बात है। लेकिन फिल्म सिर्फ एक न्यूजरील बन कर न रह जाए, इसलिए जरूरी है कि उसमें फिल्मी मसाले डाले जाएं और उनमें लपेट कर असली बात भी परोस दी जाए। अब इस मोर्चे पर तो यह फिल्म पूरी तरह से कामयाब रही है। तारीफ करनी होगी फिल्म को लिखने वाले सिद्धार्थ सिंह और गरिमा वहाल की। पहले ही सीन से स्क्रिप्ट ऐसी कसी हुई है कि आप उससे बंध जाते हैं और एक-एक सीन, एक-एक संवाद पर मजे लूटते हैं। लेकिन जब बात आती है असल मैसेज की तो कहानी पूरी फिल्मी होने लगती है। मसाला फिल्में बनाने वालों के साथ यह एक बड़ी और पुरानी दिक्कत है कि वे जमीन से जुड़ी समस्याओं के भी फिल्मी हल ही खोजते-बताते हैं। हर घर में शौचालय क्यों होना चाहिए, इसके पीछे चीखती आवाज में भड़काऊ किस्म के तर्क देने की बजाय महिलाओं की सुरक्षा और स्वास्थ्य जैसे मुद्दों पर संजीदगी से बात होनी चाहिए थी। ऐसी फिल्म अगर आपको झंझोड़ न पाए तो क्या फायदा? शौचालय के नाम हुए सरकारी घोटाले वाला प्रसंग ठूंसा गया लगता है। और मीडिया की मदद लेकर किसी भी समस्या का बवंडर खड़ा कर उसे सुलझाना अब फिल्मी फैशन-सा बन गया है।
अक्षय कुमार ऐसे देसी किरदारों को वह गजब तरीके से निभा जाते हैं। यह अलग बात है कि फिल्म में बताई गई अपनी उम्र (36 साल) से वह काफी बड़े लगते हैं। भूमि पेढनेकर शानदार अदाकारा हैं। विद्या बालन वाली कतार में दिखती हैं वह। दिव्येंदु शर्मा पूरी फिल्म में सब पर भारी पड़े हैं। सुधीर पांडेय ने अड़ियल बाबूजी का किरदार जम कर निभाया। भूमि के माता-पिता बने आयशा रजा और अतुल श्रीवास्तव भी जंचे। गाने अच्छे हैं और अपनी जगह फिट नजर आते हैं। मथुरा और आसपास की लोकेशंस फिल्म के वजन को बढ़ाती है। कुछ कलाकारों के उच्चारण दोष के बावजूद ब्रज क्षेत्र की भाषा पर की गई लेखकों और कलाकारों की मेहनत भी दिखती है। फिल्म एडिटर से निर्देशक बने श्री नारायण सिंह ने सधे हुए अंदाज में नई पारी शुरू की है। फस्र्ट हाफ कमाल का रहा, सैकिंड हाफ को भी वह कस पाते तो बढ़िया रहता।
फिल्म अपने विषय पर बात करते-करते कई बार सरकारी भोंपू बन जाती है। बावजूद कुछ कमियों के इस फिल्म को देखा और दिखाया जाना चाहिए। जिस देश की आधी से ज्यादा आबादी के पास खुद का टॉयलेट न हो, वहां इस मुद्दे पर होने वाली कोई अच्छी बात चाहे जिधर से आए, जिस शक्ल में आए, लपक लेनी चाहिए।
अपनी रेटिंग-तीन स्टार
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फ़िल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज़ से घुम्मकड़। अपने ‘सिनेयात्रा ब्लॉग’ के अलावा समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज़ पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक रेडियो व टीवी से भी जुड़े हुए हैं।)
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