दीपक दुआ…
हैरी यानी हरिंदर सिंह नेहरा पंजाब से भाग कर कनाडा चला गया था क्योंकि उसे गायक बनना था। गायक वह कमाल का है। उसके गले से अरिजीत सिंह, दिलजीत दोसांझ, शाहिद माल्लया, मोहित चौहान जैसी ढेरों आवाजें निकलती रहती हैं। (पता नहीं हमारे फिल्म वाले अब एक हीरो को एक आवाज देने में इतना झिझकते क्यों हैं।) खैर, गायक वह बन नहीं पाया। क्यों नहीं बन पाया, इसका कोई कारण निर्देशक आपको बताना जरूरी नहीं समझता। हट परे…! सो, अब हैरी यूरोप में किसी ट्रेवल कंपनी में टूर गाइड है। वह तन्हा है, उदास है, कुछ है जो उसे सालता है, उस पर औरतखोर होने के आरोप भी हैं। सब क्यों हैं, यह भी डायरेक्टर आपको नहीं बताना चाहते। चुपचाप फिल्म देखिए न…! मुंबई से आए एक गुजराती परिवार को महीने भर का टूर करवाने के बाद उन्हें एयरपोर्ट छोड़ कर वह बाहर निकलता है तो उसी परिवार की सेजल जावेरी उसके पीछे पड़ जाती है कि वह उसके साथ टूर में गुम हो चुकी उसकी सगाई की अंगूठी खोजने में मदद करे। उस रिंग को तलाशते-तलाशते ये दोनों एक-दूसरे को प्यार करने लगते हैं।
इतनी लंबी कहानी बताने का मकसद यह है कि देखिए, हमारे फिल्म वाले लड़का-लड़की को मिलाने और उन्हें पास लाने के लिए कैसे-कैसे प्रपंच बुनते हैं। अब जरा यह सुनिए-उस ग्रुप को एयरपोर्ट पर विदा करने के बाद हैरी सीधे खुदकुशी करने जा रहा है कि तभी उसे उसके बॉस का फोन आता है कि वह पहले सेजल की रिंग ढुंढवाए। लेकिन रिंग तलाशते-तलाशते हैरी सेजल में अपनी जिंदगी तलाश लेता है और सेजल हैरी में अपना भविष्य। कहिए कुछ अलग-सा लगा न? अब अगर ‘अनजाना अनजानी’ याद आई हो तो आए। इस फिल्म की असल कहानी यही थी जिसे शाहरुख की सलाह पर इम्तियाज ने बदला था। और इस फिल्म का नाम ‘द रिंग’, ‘रहनुमा’ और ‘रौला’ से होता हुआ ‘जब हैरी मैट सेजल’ तक पहुंचा। खैर, इसे भी छोड़िए। अब जो बन कर सामने आया है, उसकी बात करें।
जब लड़का मैट लड़की होगा तो प्यार तो होगा ही। लेकिन ऐसा कैसा प्यार कि अपने मंगेतर के दिए रिंग के लिए बावली हो रही और उसके प्यार में गोते खा रही सेजल हैरी पर गिरी जा रही है। और ऐसा कैसा औरतखोर हैरी जो सेजल में स्वीट सी, सिस्टर टाइप लड़की देख रहा है और उससे बच रहा है। चरित्रों को गढ़ते समय ऐसी चूकें इम्तियाज तो नहीं किया करते थे। चलिए, इसे भी छोड़िए। आप हमें हैरी के अतीत में ले जाए बिना हमसे उम्मीद करते हैं कि हम उसकी तन्हाई को समझें, उसके दर्द को महसूस करें, उससे हमदर्दी करें? आप हमें ऐसा रोमांस दिखाते हैं जो हमारे दिल को न छूता है न कचोटता है। इमोशंस से हमारी आंखें या मन नहीं भीगता। कॉमेडी कामचलाउ किस्म की है और दो बार फंसने के बावजूद हमारा हीरो किसी किस्म का एक्शन नहीं करता। तो बताइए, किस लिए यह फिल्म देखी जाए? इसलिए कि एक अनजाना और एक अनजानी मिले, साथ चले, चलते-चलते दोनों में प्यार हो गया, बस? लेकिन यह कहानी तो हिन्दी फिल्म वाले और खुद इम्तियाज तक हमें कई बार चटा चुके हैं। इसमें नया क्या है? इम्तियाज की फिल्मों में प्रेम का कोई फलसफा तो होता है, इस बार वह भी नहीं है। कहानी कुछ कहे तो हम उसे बार-बार देखने को भी तैयार हैं। कुछ कहे तब न…!
स्क्रिप्ट एकदम सपाट है। उतार-चढ़ाव आएं, घुमावदार मोड़ आएं तो रोचकता बनती है। लेकिन शुरू के 15-20 मिनट के बाद इस फिल्म ने जो सीधा रास्ता पकड़ा है वह इसे बोरियत के बंजर मैदान में ले जाता है। शाहरुख खान शुरू में जंचने के बाद साधारण लगने लगते हैं। हालांकि उनके चाहने वालों को उनके काम से निराशा नहीं होगी। लेकिन अगर बहुत जल्द उन्होंने एक लंबी छुट्टी लेकर खुद को री-इनवेंट नहीं किया तो वह अपनी साख खो बैठेंगे। अनुष्का न हॉट लगती हैं न दिमागदार। उनसे जबरन गुजराती लहजे में बुलवा कर रही-सही कसर भी पूरी कर दी गई। इन दोनों के अलावा किसी और को कायदे का रोल तक नहीं मिला। यूरोप के दर्शन करवाती इस फिल्म को देख कर यह भी शंका होती है कि कहीं वहां पर भारतीय पर्यटकों को आकर्षित करने के मकसद से तो यह फिल्म नहीं बनाई गई? पंजाबी हीरो और गुजराती हीरोइन का समीकरण तो खैर साफतौर पर विदेशों में बड़ी तादाद में बसे पंजाबी और गुजराती दर्शकों को ललचाने के इरादे से बनाया गया है।
इरशाद कामिल के गीत और प्रीतम का संगीत इम्तियाज की फिल्मों की रूह होता है। इरशाद ने इस बार भी शब्दों के साथ जम कर बाजीगरी की है और प्रीतम का संगीत भी फिल्म के मिजाज को पकड़ता है लेकिन जब फिल्म का मिजाज ही दुरुस्त न हो तो फिर बाकी बातें भी बेमानी लगने लगती हैं। शाहरुख और इम्तियाज, दोनों के अपने-अपने प्रशंसक हैं जो इनकी साधारण फिल्मों को भी सिर-माथे पर लगाते हैं। अफसोस, यह फिल्म उन्हें भी निराश करने वाली है।
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