द्वारकेश बर्मन की रिपोर्ट :
मथुरा : भगवान श्री कृष्ण का जन्म भद्र मास के कृष्णपक्ष की अष्टमी के दिन मध्यरात्रि में हुआ था। वे विष्णु के आठवें अवतार है, जिन्होंने द्वापर युग में जन्म लिया, ताकि वे लोगों को अपने मामा कंश द्वारा किये जाने वाले अत्याचारों से बचा सकें, क्योंकि भगवान विष्णु सीधे इस धरती पर अवतरित हुए और यह उनका भौतिक अवतार है। इसलिए उस दिन को कृष्णाष्टमी या जन्माष्टमी के रुप में मनाया जाता है।
द्वापर युग की मान्यताओं के अनुसार मथुरा राज्य में कंस नामक राजा हुआ करता था, जिन्होंने सत्ता की लालच में अपने पिता तक को कारागृह में बंदी बना दिया और उनपर यातनाएं करने लगा। धीरे-धीरे उनकी यातनाएं इस कदर बढ़ गयी, कि उनकी अपनी बहन देवकी की शादी के दिन आकाशवाणी हुई, कि देवकी की आंठवी संतान ही उनका वध करेगा।
इसे सुनकर स्वयं को ईश्वर मानने वाले क्रूर शाशक कंस आग बबूला हो गए और अपनी लाडली बहन देवकी और वासुदेव को मरने हेतु अस्त्र उठा लिए। उसे रोकते हुए देवकी ने वचन दिया, कि जैसे ही उनकी संतान का जन्म होगा कंश उसे मार दे। ऐसे करते करते कंश ने देवकी की 6 संतानों को मार दिया। तभी सारे देवगणों ने मिलकर योजना रची और देवकी की सातवीं संतान को नन्द की दूसरी पत्नी रोहिणी के गर्भाशय में स्थापित कर दिया, बिना कंश को पता चले। इन्होंने ने ही बलराम के रूप में जन्म लिया।
आकाशवाणी के कहे अनुसार आठवीं संतान के जन्म के समय एक-एक कर सारे पहरेदार सो गए और कारागृह के सारे दरवाज़े भी खुल गए। नन्द ने श्रीकृष्ण को अपने सर पर उठाया और गोकुल में रह रहे नन्द महाराज के घर की ओर प्रस्थान किया। उन्होंने नन्द के घर जन्मी बेटी को श्रीकृष्णा से बदल दिया। जब कंश वध करने पंहुचा तो उस बच्ची के रूप में जन्मी देवी योग माया ने उसे इस सत्य से अवगत कराया, कि उसके काल का जन्म हो चुका है। ये सब सुनकर धूर्त कंश ने मथुरा में जन्मे सारे बच्चों को मरवाने का हुक्म दिया। तरह-तरह के मायावी राक्षसों की भी मदद ली मगर सफल न हो सका।
कृष्णा जी ने बड़े होने के पश्चात मल्ल युद्ध में कंश का वध कर दिया और मथुरावासियों को उनके अत्याचारों से मुक्त किया। यशोदा नंदन, देवकी पुत्र भारतीय समाज में कृष्ण के नाम से सदियों से पूजे जा रहे हैं। तार्किकता के धरातल पर कृष्ण एक ऐसा एकांकी नायक हैं, जिसमें जीवन के सभी पक्ष विद्यमान है। कृष्ण वो किताब हैं जिससे हमें ऐसी कई शिक्षाएं मिलती हैं, जो विपरीत परिस्थिति में भी सकारात्मक सोच को कायम रखने की सीख देती हैं।
कृष्ण के जन्म से पहले ही उनकी मृत्यु का षड्यंत्र रचा जाना और कारावास जैसे नकारात्मक परिवेश में जन्म होना किसी त्रासदी से कम नही था। परन्तु विपरीत वातावरण के बावजूद नंदलाला, वासुदेव के पुत्र ने जीवन की सभी विधाओं को बहुत ही उत्साह से जिवंत किया है। श्री कृष्ण की संर्पूण जीवन कथा कई रूपों में दिखाई पङती है।
नटवरनागर श्री कृष्ण उस संर्पूणता के परिचायक हैं जिसमें मनुष्य, देवता, योगीराज तथा संत आदि सभी के गुणं समाहित है। समस्त शक्तियों के अधिपति युवा कृष्ण महाभारत में कर्म पर ही विश्वास करते हैं। कृष्ण का मानवीय रूप महाभारत काल में स्पष्ट दिखाई देता है। गोकुल का ग्वाला, बिरज का कान्हा धर्म की रक्षा के लिए रिश्तों के मायाजाल से दूर मोह-माया के बंधनों से अलग है।
कंस हो या कौरव-पांडव, दोनो ही निकट के रिश्ते फिर भी कृष्ण ने इस बात का उदाहरण प्रस्तुत किया कि धर्म की रक्षा के लिए रिश्तों की बजाय कर्तव्य को महत्व देना आवश्यक है। ये कहना अतिश्योक्ति न होगी कि कर्म प्रधान गीता के उपदेशों को यदि हम व्यवहार में अपना लें तो हम सब की चेतना भी कृष्ण सम विकसित हो सकती है।
कृष्ण का जीवन दो छोरों में बंधा है। एक ओर बांसुरी है, जिसमें सृजन का संगीत है, आनंद है, अमृत है और रास है। तो दूसरी ओर शंख है, जिसमें युद्ध की वेदना है, गरल है तथा निरसता है। ये विरोधाभास ये समझाते हैं कि सुख है तो दुःख भी है। यशोदा नंदन की कथा किसी द्वापर की कथा नही है, किसी ईश्वर का आख्यान नही है और ना ही किसी अवतार की लीला। वो तो यमुना के मैदान में बसने वाली भावात्मक रुह की पहचान है। यशोदा का नटखट लाल है तो कहीं द्रोपदी का रक्षक, गोपियों का मनमोहन तो कहीं सुदामा का मित्र। हर रिश्ते में रंगे कृष्ण का जीवन नवरस में समाया हुआ है।
माखन चोर, नंदकिशोर के जन्म दिवस पर मटकी फोङ प्रतियोगिता का आयोजन, खेल-खेल में समझा जाता है कि किस तरह स्वयं को संतुलित रखते हुए लक्ष्य को हासिल किया जा सकता है; क्योंकि संतुलित और एकाग्रता का अभ्यास ही सुखमय जीवन का आधार है। सृजन के अधिपति, चक्रधारी मधुसूदन का जन्मदिवस उत्सव के रूप में मनाकर हम सभी में उत्साह का संचार होता है और जीवन के प्रति सृजन का नजरिया जीवन को खुशनुमा बना देता है।
कृष्ण मथुरा में उत्पन्न हुए, पर राज उन्होने द्वारका में किया। यहीं बैठकर उन्होने सारे देश की बागडोर अपने हाथ में संभाली। पांड़वों को सहारा दिया। धर्म की जीत कराई और, शिशुपाल और दुर्योधन जैसे अधर्मी राजाओं को मिटाया। द्वारका उस जमाने में राजधानी बन गई थीं। बड़े-बड़े राजा यहां आते थे और बहुत-से मामले में भगवान कृष्ण की सलाह लेते थे। इस जगह का धार्मिक महत्व तो है ही, रहस्य भी कम नहीं है। कहा जाता है कि कृष्ण की मृत्यु के साथ उनकी बसाई हुई यह नगरी समुद्र में डूब गई। आज भी द्वारका में उस नगरी के अवशेष मौजूद हैं।
श्रीकृष्ण जीवन काल की विशेष लीलाएँ- एक नज़र
भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं से तो हम सभी वाकिफ़ हैं। बाल्य अवस्था से लेकर युवावस्था तक उन्होंने अचंभित करने वाली घटनाओं को सबके सामने अंजाम दिया।
मथुरा में जन्में श्रीकृष्ण : भगवान कृष्ण का जन्म मथुरा में हुआ था। उनका बचपन गोकुल, वृंदावन, नंदगाव, बरसाना आदि जगहों पर बीता।
देवराज इन्द्र के गर्व को किया चूर: अपनी कई हैरान करने वाली लीलाओं के दौरान श्रीकृष्ण ने असुर, दैत्यों से लेकर देवराज इन्द्र तक के गुरूर को खत्म कर दिया था।
क्रूर शासक कंस का वध : अपने मामा कंस का वध करने के बाद उन्होंने अपने माता-पिता को कंस के कारागार से मुक्त कराया और फिर जनता के अनुरोध पर मथुरा का राजभार संभाला। मथुरा की जनता भी कंस जैसे क्रूर शासक से मुक्त होना चाहती थी।
जरासंध बना कृष्ण का कट्टर शत्रु : कंस के मारे जाने के बाद कंस का ससुर जरासंध कृष्ण का कट्टर शत्रु बन गया। जरासंध मगध का अत्यंत क्रूर एवं साम्राज्यवादी प्रवृत्ति का शासक था।
जरासंध ने कई राजाओं को किया अपने अधीन : हरिवंश पुराण के अनुसार उसने काशी, कोशल, चेदि, मालवा, विदेह, अंग, वंग, कलिंग, पांड्य, सौबीर, मद्र, कश्मीर और गांधार के राजाओं को परास्त कर सभी को अपने अधीन बना लिया था।
कृष्ण से बदला लेने का किया प्रयास : कृष्ण से बदला लेने के लिए जरासंध ने पूरे दल-बल के साथ शूरसेन जनपद (मथुरा) पर एक बार नहीं, कई बार चढ़ाई की, लेकिन हर बार वह असफल रहा।
जरासंध ने 18 बार मथुरा पर किया आक्रमण : पुराणों के अनुसार जरासंध ने मथुरा पर शासन के लिए 18 बार मथुरा पर चढ़ाई की। इस दौरान वह 17 बार असफल रहा।
कालयवन का भी लिया साथ : मथुरा पर अंतिम बार आक्रमण के लिए उसने एक विदेशी शक्तिशाली शासक कालयवन को भी मथुरा पर आक्रमण करने के लिए प्रेरित किया।
युद्ध में मारा गया कालयवन : लेकिन युद्ध में कालयवन के मारे जाने के बाद उस देश के शासक और उसके परिवार के लोग भी कृष्ण के दुश्मन बन गए।
कृष्ण ने अपने वंशजों के साथ छोड़ा मथुरा : अंत में कृष्ण ने सभी यदुओं के साथ मिलकर मथुरा को छोड़कर जाने का फैसला किया। विनता के पुत्र गरुड़ की सलाह पर कृष्ण कुशस्थली आ गए।
कृष्ण ने बसायी थी द्वारका नगरी : वर्तमान द्वारका नगर कुशस्थली के रूप में पहले से ही विद्यमान थी। कृष्ण ने इसी उजाड़ हो चुकी नगरी को फिर से बसाया था। कृष्ण अपने 18 नए कुल-बंधुओं के साथ गुजरात के तट पर बसी कुशस्थली आ गए।
अपनी नगरी का,किलाबंद कर दिया : यहीं पर उन्होंने भव्य नए द्वारका नगर का निर्माण कराया और संपूर्ण नगर को चारों ओर से मजबूत दीवार से किलाबंद कर दिया।
द्वारका पर श्रीकृष्ण ने 36 वर्ष किया राज : भगवान कृष्ण ने यहां 36 वर्ष तक राज्य किया। यहां वे अपनी 8 पत्नियों के साथ सुखपूर्वक रहते थे।
द्वारिका से किया महाभारत का संचालन : यहीं रहकर वे हस्तिनापुर की राजनीति में शामिल रहे। यहीं से उन्होंने संपूर्ण महाभारत का संचालन भी किया।
अपने वंशजों को आपस में लड़ता देख हुए दुखी : भगवान कृष्ण यदुओं को आपस में लड़ता देख व अपने कुल का नाश देखकर बहुत दुखी हुए। उनसे मिलने कभी-कभार युधिष्ठिर आते थे।
जब एक बहेलिए ने कृष्ण पर चलाया विषयुक्त बाण : एक दिन इसी क्षेत्र के वन में भगवान कृष्ण एक पीपल के वृक्ष के नीचे योगनिद्रा में लेटे थे, तभी ‘जरा’ नामक एक बहेलिए ने भूलवश उन्हें हिरण समझकर विषयुक्त बाण चला दिया।
जब भगवान कृष्ण ने किया अपनी देह का त्याग : बाण उनके पैर के तलुवे में जाकर लगा और भगवान श्रीकृष्ण ने इसी को बहाना बनाकर देह त्याग दी। महाभारत युद्ध के ठीक 36 वर्ष बाद उन्होंने अपनी देह इसी क्षेत्र में त्याग दी थी।
92 वर्ष की उम्र में श्री कृष्ण का निर्वाण : ऐसा कहा जाता है कि जब महाभारत का युद्ध हुआ था तब श्री कृष्ण लगभग 56 वर्ष के थे। मान्यतानुसार उनका जन्म 3112 ईसा पूर्व हुआ था। इस मान से 3020 ईसा पूर्व उन्होंने 92 वर्ष की उम्र में देह त्याग दी थी।
‘भालका’ तीर्थ से प्रसिद्ध है भगवान कृष्ण का निर्वाण स्थल : जिस स्थान पर जरा ने श्रीकृष्ण को तीर मारा, उसे आज ‘भालका’ तीर्थ कहा जाता है। वहां बने मंदिर में वृक्ष के नीचे लेटे हुए कृष्ण की आदमकद प्रतिमा है। उसके समीप ही हाथ जोड़े जरा खड़ा हुआ है।
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