शशि पाण्डेय का व्यंग्य लेख
कल ही तिवारी जी के इधर से निकलना हुआ। घर के अंदर से गाने की आवाज आ रही थी “ होली आयी रे कन्हाई.. सुना दे जरा बांसुरी” देखा तो तिवारी जी घर के पीछे लगे बबूल को काट रहे थे । मैने उनसे पूछा इतना भला चंगा पेड़ क्यो काट रहे हैं पता चला , पेड़ होली में होरी करने का काटा जा रहा है । परम्पराओं के आगे आम क्या , बबूल क्या ! अच्छे – अच्छे समाजबांकुरों ने हार मान ली । पराम्पराओं के बाद अगर हम पर कोई भूत सा चढता है तो वह है बाजारवाद । यह हर किसी पर हनी सिंह के गानों सा चढ ही जाता है । त्योहारों की बात हो तो जो त्योहार नही भी मनाता उसका भी दिल मनाने को कर जाता है । लेकिन थोड़ी दिक्कत है पहरूपिहे बाजार की ,जुल्मी पैसे वालों की ही सुनता है । खाली जेब वालों के लिये ये किसी ग्रहण से कम नहीं ! होलीका त्योहार था सो मुझे भी सामान लाना ही था ।जेब का हनन होता है तो होता रहे ।
बाजारवाद से इतर कुछ जरूरी बातें ..अब होली का त्योहार होलिकादहन से शुरू हो नालों की कीट के साथ खत्म होता है । आपस में दुश्मनी हो तो यह अच्छा मौका होता है जब अपने दुश्मन को रंग के बहाने पटक- पटक कर रंग लगाते हुये लात-घूंसा बड़े आराम से किया जा सकता है । और ज्यादा वाली दुश्मनी हो तो कभी -कभी तेजाब डाल या जान से भी निपटा सकने तक के काम भी निपटाये जाते हैं । प्रहलाद तो बुआ से बच गये लेकिन अब कि आग ऐसे लगी रहती है सबको , कि हर दूसरे इंसान को एसीडिटी की बिमारी से दावानल जला रहता है।
अब मार्डन जमाने के होली भी मार्डन हो चुकी है । वह भी संयुक्त परिवार से निकल कर एकल हो चली है । पहले गली -मोहल्लों में फागों की टोलियां घूमा करती थी किसी के भी दरवाजे पर गुझियां और ठंडई की लूट बड़े प्यार से की जाती थी । अब गली -मोहल्लों वाली टोलियां छतों पर जा टंग गयीं हैं और मोहल्ला खो कर इमारत में गुम हो चुका है । फागुवा लोकगीतों से राधा निकल कर “राधा तेरा झुमका वो राधा तेरा लहंगा तक “ जा पहुंची है ।ढोलक और मंजीरों की थाप की मिठास अब बादशाह सिंह के रैप वाले गानों पर जा पहुंची है ।आप सोच रहे होंगे कि ये क्या मै तो सारी बुराइयो का झमेला ही लेकर बैठ गयी , अरे भई अच्छाईयां भी हैं मार्डन होली की हम किसी को जानते हों या नही गुब्बारा चला कर मारने की परम्परा का जिम्मेदारी से पालन करते हैं । भले कोई जरूरी सामान लेकर या जरुरी काम से जा रहा हो तीक कर निशाना लगाकर भाईचारा व बहनचारा जरूर निभाते हैं ।
होली में ठंडई पीने पिलाने का रिवाज शायद इसलिये रहा होगा क्योंकि रंगो में गर्मी होती है उसको शांत करने के लिये । लेकिन अब ठंडई की जगह सोमरस ने ले लिया शायद अब गर्मी ही गर्मी की काट होती है इसलिये ! छलक -छलक छलकाये जा ।
होली आते ही समाजसेवियों और पानी संरक्षण संस्थाओं के पीठ में सांप लोटने को होने लगते हैं । पानी बचाओ -पानी बचाओ की रट पेपर ..खबरों में जहां तहां बताया जाता है । अरे ये सच भी है जल ही तो जीवन होता है । जल न रहा तो नहाओगे क्या निचोड़ोगे क्या ? पकाओगे क्या, खाओगे…खाओगे नही तो धोओगे क्या और नहाओगे क्या ? सही सीख है सूखी सब्ज़ी के जैसे या भुजिया सब्जी के जैसे सूखी होली या भुजिया होली खेलनी चाहिये । रसेदार होलीयानी कि पानी वाली नही खेलनी चाहिये । कुछ संवेदन शील चर्म प्राणी हर्बल रंगो से होली खेलने की सलाह देते हैं .. हमारे देश में जनसंख्या इतनी है की सारे हर्बल रंग से होली खेलें तो दुनिया के आधे फूल -पत्तियों को मौत के घाट उतारना पड़ेगा ।मेरा तो मानना है खाने वाली चीजें बिना केमिकल मिलती रहे हैं वही बहुत है । बनावटी जमाने में इंसानियत बनावटी मिल रही है तो रंग तो बनावटी मिलेगें ही ।
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