इतिहास के साथ दिक्कत सिर्फ यही नहीं है कि उसे अलग-अलग नजरिए से लिखा और लिखवाया गया बल्कि यह भी है कि उसे सत्तानशीनों की सुविधानुसार परोसा और पढ़ाया गया। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास को ही लें तो आमजन के लिए यह ज्यादातर गांधी और नेहरू के इर्द-गिर्द ही घूमता है। इनके विरोधी रहे नेताओं, सेनानियों को या तो इतिहास लेखकों ने महत्व नहीं दिया या फिर उनके लिखे को आम लोगों तक सुगमता से नहीं पहुंचाया गया। नेताजी सुभाष चंद्र बोस और उनकी आजाद हिन्द सेना के बारे में ही हम कितना जानते हैं? तिग्मांशु धूलिया की यह फिल्म ‘राग देश’ इस कमी को पूरा करने की दिशा में एक सार्थक और जरूरी कदम कही जा सकती है।
दूसरे विश्व-युद्ध के दौरान भारत पर काबिज ब्रिटिश हुकूमत की फौज में शामिल 40 हजार हिन्दुस्तानी सिपाहियों को ब्रिटेन ने जापान के सामने हार मानते हुए सरेंडर कर दिया था। जापान उस समय सुभाष बोस और उनकी आजाद हिन्द सेना को समर्थन दे रहा था। उन सैनिकों में से बहुत सारे उसमें शामिल होकर ब्रिटिश सेना से लड़े और पकड़े गए। तब इन पर इंग्लैंड के राजा के खिलाफ लड़ने का आरोप लगा। ऐसे ही तीन फौजी अफसरों को दिल्ली के लालकिले में कैद करके उन पर वह मशहूर मुकदमा चला था जिसे इतिहास में ‘रेड फोर्ट ट्रायल’ का नाम दिया गया।
इस फिल्म की तारीफ कई कारणों से होनी चाहिए। पहला तो यही कि यह इतिहास के उन पन्नों को फिल्मी पर्दे पर उतारती है जो मौजूद तो हैं लेकिन सामने नहीं आ पाए। देश आजाद होने से ठीक पहले हिन्दुस्तानी नेताओं ने राजनीति की बिसात पर जिस तरह से मोहरे जमाने शुरू कर दिए थे, यह फिल्म उसकी झलक देने के साथ-साथ उस दौर की ब्रिटिश हुकूमत के अलावा जनता व मीडिया की सोच भी दिखाती है। इसे लिखने में जो रिसर्च, जो मेहनत की गई, तथ्यों को जिस बारीकी से परखा और समेटा गया और तिग्मांशु धूलिया ने इसे जिस ईमानदारी के साथ फिल्माया, वह भी सराहनीय है। हां, तथ्यात्मक होने के फेर में इसकी नाटकीयता कम हुई जिसके चलते यह कई जगह सपाट-सी लगने लगती है। सिनेमा की अपनी अलग भाषा होती है जो दर्शक को अपने साथ लेकर कहानी का सफर तय करती है। तिग्मांशु इस मामले में इस बार लड़खड़ाते दिखे। बार-बार फ्लैश बैक में जाने और लौटने के दृश्यों को थोड़ी और रोचकता और सुगमता के साथ फिल्माया जाता तो यह इतनी भारी और सूखी होने से बच सकती थी। संपादन इस फिल्म का सबसे कमजोर पक्ष है। ‘कदम कदम बढ़ाए जा…’ जोश जगाता है।
कुणाल कपूर, अमित साध और मोहित मारवाह ने तीनों अफसरों के अपने किरदारों को सलीके से निभाया। कुणाल बाकियों पर भारी पड़े। वकील भूलाभाई देसाई के रोल में कैनी देसाई, सुभाष बोस बने असमिया कलाकार कैनी बसुमातारी और कैप्टन लक्ष्मी सहगल बनीं मलयालम फिल्मों की अदाकारा मृदुला मुरली का काम उम्दा रहा। राजेश खेरा, कंवलजीत सिंह, जाकिर हुसैन जैसे चरित्र अदाकार जरूरी सहारा देते हैं। सीधी-सरल फिल्में देखने वालों को यह फिल्म भले ही रूखी-भारी लगे लेकिन ऐसे प्रयास होते रहें इसके लिए जरूरी है कि इसकी सराहना हो। इतिहास से सबक मिलते हैं और यह फिल्म जितना भी देती है उसे बटोर लेना चाहिए।
अपनी रेटिंग-तीन स्टार
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फ़िल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज़ से घुम्मकड़। अपने ‘सिनेयात्रा ब्लॉग’ के अलावा समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज़ पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक रेडियो व टीवी से भी जुड़े हुए हैं।)
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