दीप्ति गरजोला के ब्लॉग से साभार :
अच्छा नहीं लगा ना यह जानकर कि ज्यादा जीने का मतलब बुढ़ापे को ज्यादा झेलना है। मगर यह सच है। हम में से शायद ही कोई ऐसा होगा जो कम जीना चाहता होगा। हम सभी लंबी उमर की कामना तो करते हैं पर बुढापे की कल्पना कोई नहीं करना चाहता।
हाल ही में किये गये सर्वक्षेण के अनुसार स्वास्थय जागरूकता अभियान के बदौलत आने वाले कुछ सालों में भारतीयों की आयु उतनी लंबी हो सकेगी जितनी अमेरिका के लोगों की होती है। वर्तमान में जीवन दर 64 वर्ष है। यह बात उत्साहवर्धक है कि औसत भारतीय के 75 वर्ष तक जीने की संभावना रहती है। पर हमारे देश में वृद्धों दशा देखते हुऐ यह बात उतनी ही चिन्ता जनक भी है।
हमारे समाज में वृद्धों को उतना सम्मान नहीं मिलता, जितना कि मिलना चाहिये। देश में बने ओल्ड ऐज होम हमारे लिये शर्मनाक हैं और वैसे भी यह वृद्ध आश्रम हमारी संस्कृति नहीं है। यह तो पश्चिमी देशों की रीति है। हमारे यहां बढे-बूढों की सलाह से ही घर चलाने की परम्परा है। पर अंग्रेजीकरण ने हमारी परम्पराओं को नष्ट कर दिया है।
वैसे हमारी सरकार ने वृद्धों को सुरक्षा प्रदान करने के लिये कुछ उपाय किये हैं। इस वर्ष नागरिक कल्याण विधेयक लोक सभा में प्रस्तुत किया गया है। इसके अलावा स्वास्थय बीमा, पेंशन लाभ और कर रियाअतें द्वारा उन्हे लाभान्वित कराया जा रहा है।
पर मुख्य बात यह है कि कानून का पालन तो मजबूरी में किया जाता है। क्या अपने माता पिता का ख्याल क्या किसी कानून के कारण बाध्य होकर करेगें? उनके ऊपर तो कोई बंदिश नहीं थी जब उन्होने अपने सपनों और इच्छाओं को दबाकर आपकी इच्छाओं को पूरा किया और आपके सपनों को जिया। फिर उन्हीं माता पिता को उनके इतने त्याग के बदले क्या हम उन्हें सम्मान और स्नेह भी नहीं दे सकते? वह भी तब जब उन्हें आपकी सबसे ज्यादा जरूरत है।
दीप्ति गरजोला
(मीडिया की छात्रा हूं।लेखन कार्य से अत्यधिक प्रेम है।चाहती हूं कि समाज के हर वर्ग तक मेरा संदेश पहुंचे,तभी मेरा मकसद सफल हो्गा।हिन्दी प्रेमी हूं और मेरा अटल विश्वास है कि एक दिन हिन्दी को अपना खोया हुआ सम्मान अवश्य प्राप्त होगा।)